माता वैष्णोदेवी की अमर कथा!!!
"वैष्णो देवी" मंदिर शक्ति को समर्पित एक पवित्रतम हिंदू मंदिर है, जो भारत के जम्मू और कश्मीर में .त्रिकूट पर्वत की पहाड़ी पर स्थित है।
हिंदू धर्म में वैष्णो देवी,जो माता रानी और वैष्णवी के रूप में भी जानी जाती हैं, देवी मां का अवतार हैं। कहते हैं कि पहाड़ों वाली माता वैष्णो देवी सबकी मुरादें पूरी करती हैं। उसके दरबार में जो कोई सच्चे दिल से जाता है, उसकी हर मुराद पूरी होती है। ऐसा ही सच्चा दरबार है - माता वैष्णो देवी का माता के भक्त मानते हैं कि माता जब बुलाती है तो भक्त किसी न किसी बहाने से उसके दरबार पहुँच ही जाता है।
जो बिना बुलाए जाता है, वह कितना ही चाह ले माता के दर्शन नहीं कर पाता है। यहाँ आदिशक्ति के तीन रूप हैं - पहली महासरस्वती जो ज्ञान की देवी हैं, दूसरी महालक्ष्मी जो धन - वैभव की देवी और तीसरी महाकाली या दुर्गा शक्ति स्वरूपा मानी जाती है। मां वैष्णो देवी के गुफा में महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती पिंडी रूप में स्थापित हैं ।
मां वैष्णो देवी का यह प्रसिद्ध दरबार हिन्दू धर्मावलम्बियों का एक प्रमुख तीर्थ स्थल होने के साथ - साथ 51 शक्तिपीठों में से एक मानी जाती हैं, जहाँ दूर - दूर से लाखों श्रद्धालु माँ के दर्शन के लिए आते हैं। यह उत्तरी भारत में सबसे पूजनीय पवित्र स्थलों में से एक है।
भूगर्भ शास्त्री भी इस गुफा को कई अरब साल पुरानी बताते हैं। मंदिर, जम्मू और कश्मीर राज्य के जम्मू जिले में कटरा नगर के समीप है. यह उत्तरी भारत में सबसे पूजनीय पवित्र स्थलों में से एक है।
मंदिर, 5,200 फ़ीट की ऊंचाई और कटरा से लगभग 12 किलोमीटर (7.45 मील) की दूरी पर स्थित है। हर साल लाखों तीर्थयात्री मंदिर का दर्शन करते हैं और यह भारत में तिरूमला वेंकटेश्वर मंदिर के बाद दूसरा सर्वाधिक देखा जाने वाला धार्मिक तीर्थ-स्थल है। इस मंदिर की देख-रेख श्री माता वैष्णो देवी तीर्थ मंडल द्वारा की जाती है। तीर्थ-यात्रा को सुविधाजनक बनाने के लिए उधमपुर से कटरा तक एक रेल संपर्क बनाया जा रहा है।
हिन्दू पौराणिक मान्यताओं में जगत में धर्म की हानि होने और अधर्म की शक्तियों के बढऩे पर आदिशक्ति के सत, रज और तम तीन रूपमहासरस्वती, महालक्ष्मी और महादुर्गा ने अपनी सामूहिक बल से धर्म की रक्षा के लिए एक कन्या प्रकट की। इस कन्या ने त्रेतायुग में भारत के दक्षिणी समुद्री तट रामेश्वर में पण्डित रत्नाकर की पुत्री के रूप में जन्म लिया।
रत्नाकर ने बच्ची को त्रिकुता नाम दिया, परन्तु भगवान विष्णु के अंश रूप में प्रकट होने के कारण वैष्णवी नाम से विख्यात हुई। लगभग 9 वर्ष की होने पर उस कन्या को जब यह मालूम हुआ है भगवान विष्णु ने इस पृथ्वी में भगवान श्रीराम के रूप में अवतार लिया है। तब वह भगवान श्रीराम को पति मानकर उनको पाने के लिए कठोर तपस्या करने लगी।
जब श्रीराम सीता हरण के बाद सीता की खोज करते हुए रामेश्वर पहुंचे। तब उन्होंने समुद्र तट पर ध्यानमग्र कन्या को देखा। उस कन्या ने भगवान श्रीराम से उसे पत्नी के रूप में स्वीकार करने को कहा। भगवान श्रीराम ने उस कन्या से कहा कि उन्होंने इस जन्म में सीता से विवाह कर एक पत्नीव्रत का प्रण लिया है। किंतु कलियुग में मैं कल्कि अवतार लूंगा और तुम्हें अपनी पत्नी रूप में स्वीकार करुंगा।
उस समय तक तुम हिमालय स्थित त्रिकूट पर्वत की श्रेणी में जाकर तप करो और भक्तों के कष्ट और दु:खों का नाश कर जगत कल्याण करती रहो। जब श्री राम ने रावण के विरुद्ध विजय प्राप्त किया तब मां ने नवरात्र मनाने का निर्णय लिया। श्री राम ने वचन दिया था कि समस्त संसार द्वारा मां वैष्णो देवी की स्तुति गाई जाएगी, त्रिकुटा, वैष्णो देवी के रूप में प्रसिद्ध होंगी और सदा के लिए अमर हो जाएंगी।
कटरा के पास हंसाली गांव में मां वैष्णवी के परम अनुयायी श्रीधर रहते थे। वह नि:संतान होने से दु:खी रहते थे। एक बार उसने नवरात्रि पूजा में कन्या पूजन हेतु कन्याओं को बुलाया। उन कन्याओं के साथ माता वैष्णोंदेवी भी आई।
पूजन के बाद सभी कन्याएं तो चली गई पर माँ वैष्णोदेवी वहीं रहीं और श्रीधर से कहा कि पूरी बस्ती को भोजन करने का बुलावा दे दो। श्रीधर ने उस कन्या रुपी माँ वैष्णवी की बात मानकर पूरे गांव को भोजन के लिए निमंत्रण देने चला गया। वहां से लौटकर आते समय बाबा भैरवनाथ और उनके शिष्यों को भी भोजन का निमंत्रण दिया।
इसके बाद श्रीधर के घर में अनेक गांववासी आकर भोजन के लिए एकत्रित हुए। तब कन्या रुपी माँ वैष्णोदेवी ने सभी को भोजन परोसना शुरु किया।
भोजन परोसते हुए जब वह कन्या भैरवनाथ के पास गई। तब उसने कहा कि मैं तो मांस भक्षण और मदिरापान करुंगा। तब कन्या रुपी माँ ने उसे समझाया कि यह ब्राह्मण के यहां का भोजन है, इसमें मांसाहार नहीं किया जाता। किंतु भैरवनाथ ने जान-बुझकर अपनी बात पर अड़ा रहा। तब माँ ने उसके कपट को जान लिया। माँ ने वायु रुप में बदलकर त्रिकूट पर्वत की ओर चली गई।
भैरवनाथ भी उनके पीछे गया। माना जाता है कि माँ की रक्षा के लिए पवनपुत्र हनुमान भी थे। इस दौरान माता ने एक गुफा में प्रवेश कर नौ माह तक तपस्या की। भैरवनाथ भी उनके पीछे वहां तक आ गया। तब एक साधु ने भैरवनाथ से कहा कि तू जिसे तू एक कन्या समझ रहा है, वह आदिशक्ति जगदम्बा है। इसलिए उस महाशक्ति का पीछा छोड़ दे।
भैरवनाथ साधु की बात नहीं मानी। तब माता गुफा के दूसरे मार्ग से बाहर निकली। यह गुफा आज भी अद्र्धकुंवारी या गर्भजून के नाम से प्रसिद्ध है। गुफा से बाहर निकल कर कन्या ने देवी का रुप धारण किया। माता ने भैरवनाथ को चेताया और वापस जाने को कहा। फिर भी वह नहीं माना। माता गुफा के भीतर चली गई। तब तक वीर हनुमान ने भैरव से युद्ध किया।
भैरव ने फिर भी हार नहीं मानी तब माता वैष्णवी ने महाकाली का रुप लेकर भैरवनाथ का संहार कर दिया। भैरवनाथ का सिर कटकर त्रिकूट पर्वत की भैरव घाटी में गिरा। मृत्यु के पूर्व भैरवनाथ ने माता से क्षमा मांगी। तब माता ने उसे माफ कर वर भी दिया कि मेरा जो भी भक्त मेरे दर्शन के बाद भैरवनाथ के दर्शन करेगा उसके सभी मनोरथ पूर्ण होंगे।
उसी मान्यता के अनुसार आज भी भक्त माता वैष्णो देवी के दर्शन करने के बाद 8 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़कर भैरवनाथ के दर्शन करने को जाते हैं। इस बीच वैष्णो देवी ने तीन पिंड (सिर) सहित एक चट्टान का आकार ग्रहण किया और सदा के लिए ध्यानमग्न हो गईं।
इस बीच पंडित श्रीधर अधीर हो गए। वे त्रिकुटा पर्वत की ओर उसी रास्ते आगे बढ़े, जो उन्होंने सपने में देखा था, अंततः वे गुफ़ा के द्वार पर पहुंचे, उन्होंने कई विधियों से 'पिंडों' की पूजा को अपनी दिनचर्या बना ली, देवी उनकी पूजा से प्रसन्न हुईं, वे उनके सामने प्रकट हुईं और उन्हें आशीर्वाद दिया। तब से, श्रीधर और उनके वंशज देवी मां वैष्णो देवी की पूजा करते आ रहे हैं ।
अपने सभी भक्तों के मनोरथ को पूर्ण करने वाली माँ वैष्णों के दरबार में वैसे तो पूरे वर्ष ही भक्तों का ताँता लगा रहता है लेकिन वैष्णो देवी में चैत्र और आश्विन दोनों नवरात्रियों में श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ता है। इस काल में यहां पर यज्ञ, रामायण पाठ, देवी जागरण आयोजित होते हैं। नवरात्रों के दौरान माँ वैष्णो देवी के दर्शन करने की विशेष मान्यता है।
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