राजा उपरिचर एक महान प्रतापी राजा था| वह बड़ा धर्मात्मा और बड़ा सत्यव्रती था| उसने अपने तप से देवराज इंद्र को प्रसन्न करके एक विमान और न सूखने वाली सुंदर माला प्राप्त की थी| वह माला धारण करके, विमान पर बैठकर आकाश में परिभ्रमण किया करता था| उसे आखेट का बड़ा चाव था| वह प्राय: वनों में आखेट के लिए जाया करता था|
उपरिचर की रानी का नाम गिरिका था| गिरिका भी बड़ी सुंदर और पवित्र हृदया थी| वह अपने पति को प्रेम तो करती ही थी, ईश्वर के प्रति भी बड़ी आस्थालु थी| निरंतर भजन और चिंतन में लगी रहती थी|
एक बार गिरिका ऋतुमती हुई| तीन दिनों के पश्चात जब वह शुद्ध हुई, तो उपरिचर उसके साथ रमण करने से पूर्व ही वन में आखेट के लिए चला गया| राजा आखेट के लिए चला तो गया, किंतु उसका ध्यान रानी के साथ रमण करने की ओर ही लगा रहा|
दोपहर का समय था| राजा वन में एक अशोक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था| शीतल और सुगंधित हवा चल रही थी| मृदुल स्वरों में पक्षी गान कर रहे थे| राजा का ध्यान रानी की ओर चला गया| वह रमण के संबंध में मन ही मन सोचने लगा| राजा कामातुर हो उठा और उसका वीर्य स्खलित हो गया|
राजा ने सोचा, उसका वीर्य व्यर्थ नहीं जा सकता| अत: उसने अपने वीर्य को एक दोने में रखकर विमान में बैठे हुए बाज पक्षी को बुलाकर उससे कहा, "तुम इस दोने को ले जाकर मेरी रानी को दे दो| वह इसे अपने गर्भ में धारण कर लेगी|"
बाज दोने को मुख में दबाकर राजा के भवन की ओर उड़ चला| वह यमुना नदी के ऊपर से उड़ता हुआ चला जा रहा था| सहसा एक दूसरे बाज की दृष्टि उस पर पड़ी| इसने सोचा, यह अपने मुख में खाने की कोई वस्तु दबाए हुए है| अत: उसने उस बाज पर आक्रमण कर दिया|
दोनों बाजों में घमासन युद्ध करने लगा| परिणाम यह हुआ कि पहले बाज के मुख से दोना छूटकर, यमुना के जल में गिर पड़ा| दोने में रखा वीर्य पानी में मिल गया| एक मछली की वीर्य पर दृष्टि पड़ी| उसने सोचा यह खाने की वस्तु है| अत: वह उसको पानी के साथ निगल गई|
फलत: मछली गर्भवती हो गई| दासराज नामक मल्लाह को वह मछली शिकार में मिली| जब उसने मछली के पेट को बीचो बीच से काटा तो उसके पेट से एक बालक और एक बालिका निकली| दासराज ने दोनों को उपरिचर को भेंट कर दिया| उपरिचर ने बालक को तो अपने पास रख लिया, पर बालिका को दासराज को लौटा दिया| दासराज उस बालिका को अपने घर ले जाकर उसका पालन-पोषण करने लगा| दासराज ने बालिका का नाम सत्यवती रखा| वह मछली के पेट से उत्पन्न थी, इसलिए उसके शरीर से मछली की सी गंध निकला करती थी| अत: लोग उसे मत्स्यगंधा भी कहा करते थे| मत्स्यगंधा धीरे-धीरे बड़ी हुई| वह बड़ी रूपवती थी| वह रात्रियों को अपनी नाव पर बैठाकर इस पार से उस पार पहुंचाया करती थी| एक दिन दोपहर के समय महर्षि पराशर वहां जा पहुंचे| वे मत्स्यगंधा को देखकर उस पर मुग्ध हो गए| उन्होंने उससे कहा, "सुंदरी, तुम्हें अपूर्व सुख मिलेगा| मैं तुम्हारे साथ रमण करना चाहता हूं|" मत्स्यगंधा ने उत्तर दिया, "महर्षे, आप यह कैसी बातें कर रहे हैं ? दोपहर का समय है| आसपास लोग बैठे हुए हैं, मैं आपके साथ रमण कैसे कर सकती हूं ?" पराशर जी ने योगशक्ति से चारों ओर कुहरा पैदा करदिया| और बोले, "अब हमें कोई नहीं देख सकेगा| तू निश्चिंत होकर मेरे प्रस्ताव को स्वीकार कर ले|" मत्स्यगंधा पुन: बोल उठी, "महर्षे, मैं कुमारी हूं| पिता की आज्ञा के अधीन हूं| आपके साथ रमण करने से मेरा कौमार्य नष्ट हो जाएगा| मैं समाज में लांछित बन जाऊंगी|" पराशर जी ने उत्तर दिया, "तुम चिंता मत करो| मुझसे रमण करने के पश्चात भी तुम्हारा कौमार्य बना रहेगा| गर्भवती होने पर भी गर्भ का चिह्न प्रकट नहीं होगा|" मत्स्यगंधा फिर बोली, "एक बात और, मेरे शरीर से मछली की सी गंध निकलती है| आप मुझे वरदान दें कि वह गंध के रूप में बदल जाए और चार कोस तक फैली रहे|" पराशर जी ने तथास्तु कह दिया| फलत: मत्स्यगंधा के शरीर से कस्तूरी की सी गंध निकलने लगी| वह गंध चार कोस तक फैली रहती थी| अत: अब वह योजनगंधा भी कही जाने लगी| पराशर जी ने मत्स्यगंधा के साथ रमण किया| उनके साथ रमण के फलस्वरूप वह गर्भवती हुई| समय पर यमुना के द्वीप में एक बालक ने उसके गर्भ से जन्म लिया| वह बालक जन्म लेते ही बड़ा हो गया, वह तप करने के लिए वन में चला गया| वही बालक जगत में वेदव्यास जी के नाम से प्रसिद्ध हुआ| वेदव्यास जी का पूरा नाम कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास था| वे श्याम वर्ण के थे, इसलिए उनका नाम कृष्ण पड़ा| वे दो द्वीपों के बीच में पैदा हुए थे, इसलिए द्वैपायन कहे जाते थे| वेदों के पंडित होने से वेदव्यास कहे जाते थे| वेदव्यास जी अमर हैं, वे आज भी धरती पर विद्यमान हैं और किसी-किसी को दर्शन देकर कृतार्थ करते हैं|
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