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रविवार, 2 जून 2019

नाग जाति का इतिहास

नाग जाति का इतिहास भारत के प्राचीन गौरव का प्रतीक है।

स्कंदमाता के साथ होती है नागों की पूजा.. 🐍🐍

नाग जाति का इतिहास भारत के प्राचीन गौरव का प्रतीक है। नागों का नाम उनकी नाग पूजा के कारण नहीं, अपितु नाग को अपना कुल देवता तथा रक्षक मानने के कारण हुआ है। वैदिक युग से ही नाग पूजा का प्रारंभ माना जाता है।  प्राचीन नाग जाति भारतीय आर्यों की ही एक शाखा थी। पौराणिक आधार पर कश्यप ऋषि नागों के पिता थे। बाद में नाग जाति एक बहुत बड़ा समुदाय बन गया।

पुराणों एवं नागवंशीय शिलालेखों के अनुसार 'भोगवती' नागों की राजधानी है। प्राचीन मगध में राजगृह के निकट भी नागों का केंद्र था। जरासंध पर्व के अंतर्गत उन स्थानों का भी उल्लेख मिलता है, जहां नाग लोग रहते थे। महाभारत काल में श्रीकृष्ण ने अर्जुन तथा भीम को नागों का जो केंद्र दिखाया था, उन स्थानों के नाम अर्बुद, शक्रवापी, स्वस्तिक तथा मणिनाग थे। नागराज कपिल मुनि का आश्रम गंगा के डेल्टा के निकट था। नागकन्या उपली के पिता नागराज कौरव्य की राजधानी गंगाद्वार या हरद्वार थी। (आदिपर्व अध्याय 206, श्लोक 13-17) भद्रवाह, जम्मू, कांगड़ा आदि पहाड़ी देशों में जो नाग राजाओं की मूर्तियां पाई जाती हैं, वे बहुधा प्राचीन हैं।

यद्यपि यह बताना आज भी कठिन है कि वासुकी, तक्षक नाग या तरंतनाग, शेषनाग आदि नाग राजाओं की ये मूर्तियां वास्तविक प्रतीक हैं या स्थानीय व्यक्तियों ने उन्हें देवता मानकर उनकी मूर्तियों की स्थापना की। कितनी शताब्दियों से इनकी पूजा होती चली आ रही है, यह बता पाना भी प्राय: कठिन है।

यद्यपि प्राचीन भारत की नाग जातियों का इतिहास अभी पूर्णत: स्पष्ट नहीं है, फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि उनके वंश में आर्यों की ही भांति ऋषि, म‍ुनि, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों का समावेश था। कुछ शिलालेखों के माध्यम से उनका कश्यप गोत्रीय होना भी स्पष्ट होता है, नागों के आवास स्थल के संबंध में 'खाण्डव-दहन-पर्व' महाभारत से जानकारी प्राप्त होती है।

नाग जाति अत्यंत प्रभुता संपन्न थी। भारत के विभिन्न स्थानों में उनके आवासीय ध्वंसावशेष इस बात का प्रमाण हैं। वे शक्तिशाली होने के साथ-साथ कुशल नाविक भी थे। उनकी सहायता से ही देवों ने समुद्र पार किया था।

' नंदलाल देकृत रसातल' में इस बात का उल्लेख है कि तुर्किस्तान का नाम नागलोक था। तुर्क नागवंशीय हैं। तुर्कों की उपजातियां सेंस, यासक आदि शेष एवं वासुकी के नाम पर हैं। उत्तरी तुर्किस्तान को काम्बोज कहा गया है। डबरा (ग्वालियर) के पास खुदाई में कुछ समय पूर्व ही नाग शासकों के सिक्के मिले थे। ग्वालियर संभाग में ही ‍‍'पिछोर' के केयूर पर्वत पर आज भी नागवंशीय महल है। नरवर में भी उनका शासन था।

हमारे धर्म ग्रंथो में #शेषनाग, #वासुकि नाग, #तक्षक नाग, #कर्कोटक नाग, #धृतराष्ट्र नाग, #कालिया नाग आदि नागो का वर्णन मिलता है। इन नागो से सम्बंधित यह कथा पृथ्वी के आदि काल से सम्बंधित है। इसका वर्णन वेदव्यास जी ने भी महाभारत के आदि पर्व में किया है। महाभारत के आदि पर्व में इसका वर्णन होने के कारण लोग इसे महाभारत काल की घटना समझते है, लेकिन ऐसा नहीं है। महाभारत के आदि काल में कई ऐसी घटनाओं का वर्णन है जो की महाभारत काल से बहुत पहले घटी थी लेकिन उन घटनाओ का संबंध किसी न किसी तरीके से महाभारत से जुड़ता है, इसलिए उनका वर्णन महाभारत के आदि पर्व में किया गया है।

नागो की उत्पत्ति कैसे हुयी?????

कद्रू और विनता दक्ष प्रजापति की पुत्रियाँ थीं और दोनों कश्यप ऋषि को ब्याही थीं। एक बार कश्यप मुनि ने प्रसन्न होकर अपनी दोनों पत्नियों से वरदान माँगने को कहा। कद्रू ने एक सहस्र पराक्रमी सर्पों की माँ बनने की प्रार्थना की और विनता ने केवल दो पुत्रों की किन्तु दोनों पुत्र कद्रू के पुत्रों से अधिक शक्तिशाली पराक्रमी और सुन्दर हों। कद्रू ने 1000 अंडे दिए और विनता ने दो। समय आने पर कद्रू के अंडों से 1000 सर्पों का जन्म हुआ।

पुराणों में कई नागो खासकर वासुकी, शेष, पद्म, कंबल, कार कोटक, नागेश्वर, धृतराष्ट्र, शंख पाल, कालाख्य, तक्षक, पिंगल, महा नाग आदि का काफी वर्णन मिलता है।

शेषनाग  : - कद्रू के बेटों में सबसे पराक्रमी शेषनाग थे। इनका एक नाम अनन्त भी है। शेषनाग ने जब देखा कि उनकी माता व भाइयों ने मिलकर विनता के साथ छल किया है तो उन्होंने अपनी मां और भाइयों का साथ छोड़कर गंधमादन पर्वत पर तपस्या करनी आरंभ की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उन्हें वरदान दिया कि तुम्हारी बुद्धि कभी धर्म से विचलित नहीं होगी।

ब्रह्मा ने शेषनाग को यह भी कहा कि यह पृथ्वी निरंतर हिलती-डुलती रहती है, अत: तुम इसे अपने फन पर इस प्रकार धारण करो कि यह स्थिर हो जाए। इस प्रकार शेषनाग ने संपूर्ण पृथ्वी को अपने फन पर धारण कर लिया। क्षीरसागर में भगवान विष्णु शेषनाग के आसन पर ही विराजित होते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण व श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम शेषनाग के ही अवतार थे।

वासुकि नाग  : - धर्म ग्रंथों में वासुकि को नागों का राजा बताया गया है। ये भी महर्षि कश्यप व कद्रू की संतान थे। इनकी पत्नी का नाम शतशीर्षा है। इनकी बुद्धि भी भगवान भक्ति में लगी रहती है। जब माता कद्रू ने नागों को सर्प यज्ञ में भस्म होने का श्राप दिया तब नाग जाति को बचाने के लिए वासुकि बहुत चिंतित हुए। तब एलापत्र नामक नाग ने इन्हें बताया कि आपकी बहन जरत्कारु से उत्पन्न पुत्र ही सर्प यज्ञ रोक पाएगा।

तब नागराज वासुकि ने अपनी बहन जरत्कारु का विवाह ऋषि जरत्कारु से करवा दिया। समय आने पर जरत्कारु ने आस्तीक नामक विद्वान पुत्र को जन्म दिया। आस्तीक ने ही प्रिय वचन कह कर राजा जनमेजय के सर्प यज्ञ को बंद करवाया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार समुद्रमंथन के समय नागराज वासुकी की नेती बनाई गई थी। त्रिपुरदाह के समय वासुकि शिव धनुष की डोर बने थे।

कर्कोटक नाग  : - कर्कोटक शिव के एक गण हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार सर्पों की मां कद्रू ने जब नागों को सर्प यज्ञ में भस्म होने का श्राप दिया तब भयभीत होकर कंबल नाग ब्रह्माजी के लोक में, शंखचूड़ मणिपुर राज्य में, कालिया नाग यमुना में, धृतराष्ट्र नाग प्रयाग में, एलापत्र ब्रह्मलोक में और अन्य कुरुक्षेत्र में तप करने चले गए।

ब्रह्माजी के कहने पर कर्कोटक नाग ने महाकाल वन में महामाया के सामने स्थित लिंग की स्तुति की। शिव ने प्रसन्न होकर कहा कि- जो नाग धर्म का आचरण करते हैं, उनका विनाश नहीं होगा। इसके उपरांत कर्कोटक नाग उसी शिवलिंग में प्रविष्ट हो गया। तब से उस लिंग को कर्कोटेश्वर कहते हैं। मान्यता है कि जो लोग पंचमी, चतुर्दशी और रविवार के दिन कर्कोटेश्वर शिवलिंग की पूजा करते हैं उन्हें सर्प पीड़ा नहीं होती।

धृतराष्ट्र नाग  : - धर्म ग्रंथों के अनुसार धृतराष्ट्र नाग को वासुकि का पुत्र बताया गया है। महाभारत के युद्ध के बाद जब युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ किया तब अर्जुन व उसके पुत्र ब्रभुवाहन (चित्रांगदा नामक पत्नी से उत्पन्न) के बीच भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में ब्रभुवाहन ने अर्जुन का वध कर दिया। ब्रभुवाहन को जब पता चला कि संजीवन मणि से उसके पिता पुन: जीवित हो जाएंगे तो वह उस मणि के खोज में निकला।

वह मणि शेषनाग के पास थी। उसकी रक्षा का भार उन्होंने धृतराष्ट्र नाग को सौंप था। ब्रभुवाहन ने जब धृतराष्ट्र से वह मणि मागी तो उसने देने से इंकार कर दिया। तब धृतराष्ट्र एवं ब्रभुवाहन के बीच भयंकर युद्ध हुआ और ब्रभुवाहन ने धृतराष्ट्र से वह मणि छीन ली। इस मणि के उपयोग से अर्जुन पुनर्जीवित हो गए।

कालिया नाग  : - श्रीमद्भागवत के अनुसार कालिया नाग यमुना नदी में अपनी पत्नियों के साथ निवास करता था। उसके जहर से यमुना नदी का पानी भी जहरीला हो गया था। श्रीकृष्ण ने जब यह देखा तो वे लीलावश यमुना नदी में कूद गए। यहां कालिया नाग व भगवान श्रीकृष्ण के बीच भयंकर युद्ध हुआ। अंत में श्रीकृष्ण ने कालिया नाग को पराजित कर दिया। तब कालिया नाग की पत्नियों ने श्रीकृष्ण से कालिया नाग को छोडऩे के लिए प्रार्थना की। तब श्रीकृष्ण ने उनसे कहा कि तुम सब यमुना नदी को छोड़कर कहीं ओर निवास करो। श्रीकृष्ण के कहने पर कालिया नाग परिवार सहित यमुना नदी छोड़कर कहीं ओर चला गया।

तक्षक नाग  : - धर्म ग्रंथों के अनुसार तक्षक पातालवासी आठ नागों में से एक है। तक्षक के संदर्भ में महाभारत में वर्णन मिलता है। उसके अनुसार श्रृंगी ऋषि के शाप के कारण तक्षक ने राजा परीक्षित को डसा था, जिससे उनकी मृत्यु हो गयी थी। तक्षक से बदला लेने के उद्देश्य से राजा परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने सर्प यज्ञ किया था। इस यज्ञ में अनेक सर्प आ-आकर गिरने लगे। यह देखकर तक्षक देवराज इंद्र की शरण में गया।

जैसे ही ऋत्विजों (यज्ञ करने वाले ब्राह्मण) ने तक्षक का नाम लेकर यज्ञ में आहुति डाली, तक्षक देवलोक से यज्ञ कुंड में गिरने लगा। तभी आस्तीक ऋषि ने अपने मंत्रों से उन्हें आकाश में ही स्थिर कर दिया। उसी समय आस्तीक मुनि के कहने पर जनमेजय ने सर्प यज्ञ रोक दिया और तक्षक के प्राण बच गए। ग्रंथों के अनुसार तक्षक ही भगवान शिव के गले में लिपटा रहता है।

तक्षक नाग पाताल में निवास करने वाले आठ नागों में से एक है। यह माता #कद्रू के गर्भ से उत्पन्न हुआ था तथा इसके पिता #कश्यप ऋषि थे। तक्षक 'कोशवश' वर्ग का था। यह काद्रवेय नाग है। माना जाता है कि तक्षक का राज #तक्षशिला में था। #श्रृंगी ऋषि के शाप के कारण तक्षक ने राजा परीक्षित को डँसा था, जिससे उनकी मृत्यु हो गयी थी। 

इससे क्रुद्ध होकर बदला लेने की नीयत से #परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने सर्पयश किया, जिससे डरकर तक्षक इंद्र की शरण में गया। इस पर जनमेजय की आज्ञा से ऋत्विजों के मंत्र पढ़ने पर इंद्र भी खिंचने लगे, तब इंद्र ने डरकर तक्षक को छोड़ दिया। जब तक्षक अग्निकुण्ड के समीप पहुँचा, तब आस्तीक ऋषि की प्रार्थना पर यज्ञ बंद हुआ और तक्षक के प्राण बचे। 

यह नाग ज्येष्ठ मास के अन्य गणों के साथ सूर्य रथ पर अधिष्ठित रहता है। यह शिव की ग्रीवा के चारों ओर लिपटा रहता है। पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार भारत में तक्षक जाति थी, जिसका जातीय चिह्न सर्प था। इसका युद्ध राजा परीक्षित से हुआ था, जिसमे परीक्षित मारे गये थे। जनमेजय ने तक्षशिला के समीप इन तक्षकों से युद्ध किया और इन्हें परास्त किया था। 

महाभारत आदि पर्व के अनुसार, महर्षि शौनक जी ने कहा- "सूतनन्दन! सर्पों को उनकी माता से और विनता देवी को उनके पुत्र से जो शाप प्राप्त हुआ था, उसका कारण आपने बता दिया। कद्रू और विनता को उनके पति कश्यप जी से जो वर मिले थे, वह कथा भी कह सुनायी तथा विनता के जो दोनों पुत्र पक्षी रूप में प्रकट हुए थे, उनके नाम भी आपने बताये हैं। 

किंतु सूतपुत्र! आप सर्पों के नाम नहीं बता रहे हैं। यदि सबका नाम बताना सम्भव न हो, तो उनमें जो मुख्य-मुख्य सर्प हैं, उन्हीं के नाम हम सुनना चाहते हैं।" उग्रश्रवा जी ने कहा- "तपोधन! सर्पों की संख्या बहुत है; अतः उन सबके नाम तो नहीं कहूँगा, किंतु उनमें जो मुख्य-मुख्य सर्प हैं, उनके मुख्य नाम इस प्रकार हैं। 

नागों में सबसे पहले #शेषनाग जी प्रकट हुए हैं। तदनन्तर #वासुकि, ऐरावत, तक्षक, कर्कोटक, धनंजय, #कालिय, #मणिनाग, आपूरण, पिञजरक, एलापत्र, वामननील, अनील, कल्माष, शबल, आर्यक नाग, उग्रक नाग, कलशपोतक, सुमनाख्य नाग, दधिमुख, विमलपिण्डक नाग, आप्त, कर्कोटक (द्वितीय), शंख, वालिशिख, निष्टानक, हेमगुह नाग, नहुष, पिंगल नाग, बाह्मकर्ण, हस्तिपद, मुद्ररपिण्डक, कम्बल, अश्वतर नाग, कालीयक नाग, वृत्त नाग, संवतर्क, पह्म (प्रथम), पह्म (द्वितीय), शंखमुख, कूष्माण्डक नाग, क्षेमक, पिण्डारक नाग, करवीर, पुष्पदंष्ट्र नाग, बिल्वक, बिल्वपाण्डुर, मूषकाद, शंखशिरा नाग, पूर्णभद्र नाग, हरिद्रक, अपराजित, ज्योतिक नाग, श्रीवह नाग, कौरव्य, धृतराष्ट्र, पराक्रमी शंखपिण्ड, विरजा, सुबाहु, वीर्यवान शालिपिण्ड, हस्तिपिण्ड नाग, पिठरक नाग, सुमुख, कोणपाशन नाग, कुठर नाग, कुंजर, प्रभाकर, कुमुद, कुमुदाक्ष नाग, तित्तिरि नाग, हलिक नाग, महानाग कर्दम, बहुमूलक, कर्कर नाग, अकर्कर, कुण्डोदर और महोदर- ये नाग उत्पन्न हुए।

हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार, तक्षक पाताल के आठ नागों में से एक नाग जो कश्यप का पुत्र था और कद्रु के गर्भ से उत्पन्न हुआ था श्रृंगी ऋषि का शाप पूरा करने के लिये राजा परीक्षित को इसी ने काटा था। इसी कारण राजा जनमेजय इससे बहुत बिगड़े और उन्होंने संसार भर के साँपों का नाश करने के लिये सर्पयज्ञ आरंभ किया। 

तक्षक इससे डरकर इंद्र की शरण में चला गया। इसपर जनमेजय ने अपने ऋषियों को आज्ञा दी कि इंद्र यदि तक्षक को न छोड़े, तो उसे भी तक्षक के साथ खींच मँगाओ और भस्म कर दो। ऋत्विकों के मंत्र पढ़ने पर तक्षक साथ इंद्र भी खिंचने लगे। तब इंद्र ने डरकर तक्षक को छोड़ दिया। जब तक्षक खिंचकर अग्निकुंड के समीप पहुँचा, तब आस्तीक ने आकर जनमेजय से प्रार्थना की और तक्षक के प्राण बच गए।

कुछ विद्धानों का विश्वास है कि प्राचीन काल में भारत में तक्षक नाम की एक जाति ही निवास करती थी। नाग जाति के लोग अपने आपको तक्षक की संतान ही बतलाते हैं। प्राचीन काल में ये लोग सर्प का पूजन करते थे। कुछ पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि प्राचीन काल में कुछ विशिष्ट अनायों को हिंदू लोग तक्षक या नाग कहा करते थे। और ये लोग संभवतः #शक थे। तिब्बत, मंगोलिया ओर चीन के निवासी अबतक अपने आपको तक्षक या नाग के वंशधर बतलाते हैं। 

महाभारत के युद्ध के उपरांत धीरे धीरे तक्षकों का अधिकार बढ़ने लगा और उत्तरपश्चिम भारत में तक्षक लोगों का बहुत दिनों तक, यहाँ तक कि सिकंदर के भारत आने के समय तक राज्य रहा। इनका जातीय चिह्न सर्प था। ऊपर परीक्षित और जनमेजय की जो कथा दी गई है, उसके संबंध में कुछ पाश्चात्य विद्वानों का गत है कि तक्षकों के साथ एक बार पांडवों का बड़ा भारी युद्ध हुआ था जिसमें तक्षकों की जीत हुई थी ओर राजा परीक्षित मारे गए थे, और अंत से जनमेजय ने फिर तक्षशिला में युद्ध करके तक्षकों का नाश किया था और यही घटना जनमेजय के सर्पयज्ञ के नाम से प्रसिद्ध हुई है।

गरुड पुराण के अनुसार!!!!!!

गरुड पुराण में महर्षि कश्यप और तक्षक नाग को लेकर एक सुन्दर उपाख्यान दिया गया है। ऋषि शाप से जब राजा परीक्षित को तक्षक नाग डसने जा रहा था, तब मार्ग में उसकी भेंट कश्यप ऋषि से हुई। तक्षक ने ब्राह्मण का वेश धरकर उनसे पूछा कि वे इस तरह उतावली में कहां जा रहे हैं? इस पर कश्यप ने कहा कि तक्षक नाग महाराज परीक्षित को डसने वाला है। मैं उनका विष प्रभाव दूर करके उन्हें पुन: जीवन दे दूंगा। 

यह सुनकर तक्षक ने अपना परिचय दिया और उनसे लौट जाने के लिए कहा। क्योंकि उसके विष-प्रभाव से आज तक कोई भी व्यक्ति जीवित नहीं बचा था। तब कश्यप ऋषि ने कहा कि वे अपनी मन्त्र शक्ति से राज परीक्षित का विष-प्रभाव दूर कर देंगे। इस पर तक्षक ने कहा कि यदि ऐसी बात है तो आप इस वृक्ष को फिर से हरा-भरा करके दिखाइए। मैं इसे डसकर अभी भस्म किए देता हूं। तक्षक ने वृक्ष को अपने विष प्रभाव से तत्काल भस्म कर दिया।

इस पर कश्यप ऋषि ने उस वृक्ष की भस्म एकत्र की और अपना मन्त्र फूंका। तभी तक्षक ने आश्चर्य से देखा कि उस भस्म में से कोंपल फूट आई और देखते ही देखते वह हरा-भरा वृक्ष हो गया। हैरान तक्षक ने ऋषि से पूछा कि वे राजा का भला करने किस कारण से जा रहे हैं? ऋषि ने उत्तर दिया कि उन्हें वहां से प्रचुर धन की प्राप्ति होगी। इस पर तक्षक ने उन्हें उनकी सम्भावना से भी अधिक धन देकर वापस भेज दिया। इस पुराण में कहा गया है कि कश्यप ऋषि का यह प्रभाव 'गरुड़ पुराण' सुनने से ही पड़ा था।

भारत में नागदेवों के अनेकों मंदिर हैं लेकिन तक्षक नाग के मंदिर का उल्लेख बहुत कम ही मिलता है। मध्यप्रदेश #खंडवा जिले के दसनावल गाँव में विश्व का एक मात्र तक्षक मंदिर है। मंदिर के पास ही एक प्राचीन वट वृक्ष भी है। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार यहाँ तक्षक ने धन्वंतरि को डंसा था और उनके दो शिष्य भगुरा व सगुरा को दिग्भ्रमित भी किया था। मान्यताओं व शोध के अनुसार मध्यप्रदेश उज्जैन के समीप आज के #नागदा क्षेत्र में जनमेजय के सर्पमेघ यज्ञ अग्नि कुंड में गिरे नागों का नागदाह संस्कार किया गया था।

भगवान शिव के गले में लिपटे नाग का रहस्य!!!!!

भारत में नागकुल और नागों के रहस्य को सुलझाना अत्यंत ही कठिन है। क्या पहले सर्पमानव होते थे या कि सर्प जातियों के नाम के आधार पर ही मानव की जातियों का निर्माण हुआ? कुछ भी हो लेकिन यह तो तय है कि सभी नाग प्रजातियां भगवान शिव की भक्त थीं। उनका धर्म भी शैव धर्म ही था।

वासुकि के उल्लेखनीय कार्य : - वासुकि भगवान शिव के परम भक्त थे। माना जाता है कि नाग जाति के लोगों ने ही सर्वप्रथम शिवलिंग की पूजा का प्रचलन शुरू किया था। वासुकि की भक्ति से प्रसन्न होकर ही भगवान शिव ने उन्हें अपने गणों में शामिल कर लिया था। वासुकी को नागलोक का राजा माना गया है।

समुद्र मंथन के दौरान वासुकि नाग को ही रस्सी के रूप में मेरू पर्वत के चारों और लपेटकर मंथन किया गया था, जिसके चलते उनका संपूर्ण शरीर लहूलुहान हो गया था। जब भगवान श्री कृष्ण को कंस की जेल से चुपचाप वसुदेव उन्हें गोकुल ले जा रहे थे तब रास्ते में जोरदार बारिश हो रही थी। इसी बारिश और यमुना के उफान से वासुकी नाग ने ही श्री कृष्क्ष की रक्षा की थी। वेबदुनिया के शोधानुसार वासुकी ने ही कुंति पुत्र भीम को दस हजार हाथियों के बल प्राप्ति का वरदान दिया था। वासुकी के सिर पर ही नागमणि होती थी।

कैसे उत्पत्ति हुई नागों की : पुराणों अनुसार सभी नागों की उत्पत्ति ऋषि कश्यप की पत्नि कद्रू की कोख से हुई है। कद्रू ने हजारों पुत्रों को जन्म दिया था जिसमें प्रमुख नाग थे- अनंत (शेषनागज़वासुकी, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख, पिंगला और कुलिक। कद्रू दक्ष प्रजापति की कन्या थीं।

अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कार्कोटक और पिंगला- उक्त पांच नागों के कुल के लोगों का ही भारत में वर्चस्व था। यह सभी कश्यप वंशी थे। इन्ही से नागवंश चला। वेबदुनिया के शोधानुसार नाग वंशावलियों में 'शेष नाग' को नागों का प्रथम राजा माना जाता है। शेष नाग को ही 'अनंत' नाम से भी जाना जाता है। इसी तरह आगे चलकर शेष के बाद वासुकी हुए फिर तक्षक और पिंगला। वासुकी ने भगवान शिव की सेवा में नियुक्त होना स्वीकार किया।

वासुकी का कैलाश पर्वत के पास ही राज्य था और मान्यता है कि तक्षक ने ही तक्षकशिला (तक्षशिला) बसाकर अपने नाम से 'तक्षक' कुल चलाया था। उक्त तीनों की गाथाएं पुराणों में पाई जाती हैं। शेषनाग (अनंत) को भगवान विष्णु की सेवा का अवसर मिला।

एक सिद्धांत अनुसार ये मूलत: कश्मीर के थे। कश्मीर का 'अनंतनाग' इलाका इनका गढ़ माना जाता था। कांगड़ा, कुल्लू व कश्मीर सहित अन्य पहाड़ी इलाकों में नाग ब्राह्मणों की एक जाति आज भी मौजूद है। महाभारत काल में पूरे भारत वर्ष में नागा जातियों के समूह फैले हुए थे। विशेष तौर पर कैलाश पर्वत से सटे हुए इलाकों से असम, मणिपुर, नागालैंड तक इनका प्रभुत्व था। ये लोग सर्प पूजक होने के कारण नागवंशी कहलाए। कुछ विद्वान मानते हैं कि शक या नाग जाति हिमालय के उस पार की थी। अब तक तिब्बती भी अपनी भाषा को 'नागभाषा' कहते हैं।

उनके बाद ही कर्कोटक, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अनत, अहि, मनिभद्र, अलापत्र, कम्बल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना इत्यादी नाम से नागों के वंश हुआ करते थे। भारत के भिन्न-भिन्न इलाकों में इनका राज्य था।

अथर्ववेद में कुछ नागों के नामों का उल्लेख मिलता है। ये नाग हैं श्वित्र, स्वज, पृदाक, कल्माष, ग्रीव और तिरिचराजी नागों में चित कोबरा (पृश्चि), काला फणियर (करैत), घास के रंग का (उपतृण्य), पीला (ब्रम), असिता रंगरहित (अलीक), दासी, दुहित, असति, तगात, अमोक और तवस्तु आदि।

'नागा आदिवासी' का संबंध भी नागों से ही माना गया है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में भी नल और नाग वंश तथा कवर्धा के फणि-नाग वंशियों का उल्लेख मिलता है। पुराणों में मध्यप्रदेश के विदिशा पर शासन करने वाले नाग वंशीय राजाओं में शेष, भोगिन, सदाचंद्र, धनधर्मा, भूतनंदि, शिशुनंदि या यशनंदि आदि का उल्लेख मिलता है।

पुराणों अनुसार एक समय ऐसा था जबकि नागा समुदाय पूरे भारत (पाक-बांग्लादेश सहित) के शासक थे। उस दौरान उन्होंने भारत के बाहर भी कई स्थानों पर अपनी विजय पताकाएं फहराई थीं। तक्षक, तनक और तुश्त नागाओं के राजवंशों की लम्बी परंपरा रही है। इन नाग वंशियों में ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सभी समुदाय और प्रांत के लोग थे।

नागवंशियों ने भारत के कई हिस्सों पर राज किया था। इसी कारण भारत के कई शहर और गांव 'नाग' शब्द पर आधारित हैं। मान्यता है कि महाराष्ट्र का नागपुर शहर सर्वप्रथम नागवंशियों ने ही बसाया था। वहां की नदी का नाम नाग नदी भी नागवंशियों के कारण ही पड़ा। नागपुर के पास ही प्राचीन नागरधन नामक एक महत्वपूर्ण प्रागैतिहासिक नगर है। महार जाति के आधार पर ही महाराष्ट्र से महाराष्ट्र हो गया। महार जाति भी नागवंशियों की ही एक जाति थी।

इसके अलावा हिंदीभाषी राज्यों में 'नागदाह' नामक कई शहर और गांव मिल जाएंगे। उक्त स्थान से भी नागों के संबंध में कई किंवदंतियां जुड़ी हुई हैं। नगा या नागालैंड को क्यों नहीं नागों या नागवंशियों की भूमि माना जा सकता है।

ऊँ नम: शिवाय

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